खर्च कर सुख की पोटली,
जिंदगी दुखों का सामान,
घर ले आई,
जिसकी एक चुभन से,
बिखर जाता है मन पारे सा ,
जिंदगी वो दुःख का मेहमान ,
घर ले आई,
थका थका था तन,
अब चुका सा रहेगा मन,
जिंदगी नया ये फरमान,
घर ले आई ,
अपने ही दुखों से ,
पूरा नहीं था मन आँगन,
दूसरों के दर्द भी अब यह,
उधार ले आई,
और फिर कोई भाप न ले ,
रोई हुई आँखों के किनारे,
मेरे रिसते गम छुपाने के लिए,
यह स्याह काजल का ,
पूरा बाज़ार घर ले आई,
जब लगा असहनीय पीड़ा का चक्र तोड़,
रोक दूं सांसों की आती जाती चुभन,
तभी जिंदगी,
जीने के नए से बहाने ,
दो चार घर ले आई.
very touchy poem......luvd it very much
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पोस्ट जिन्दगी क्या -२ ले आती है पता नहीं
ReplyDeleteआभार..............
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
ReplyDeletebehad khoobsurat.
ReplyDeleteWonderful!!! nice writing skills..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने
ReplyDeleteये बहाने ही तो स्टिक का कम करते है जिंदगी वास्ते......
ReplyDeleteThanks for all the encouraging words!Sahi kaha Anurag ji ,inhi bahane ko to hum jindagi kehte hain....
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