Sunday, September 11, 2011

सिया का अपहरण



लक्ष्मण रेखा




















मन को सिया बना कर

खींची मस्तिष्क ने एक लक्ष्मण रेखा

और जब जब अभिलाषा के रावन ने

खटखटाया ह्रदय का द्वार 

तो मैंने इस रेखा को दहकते देखा।


जानती थी लांघ कर यह रेखा

मैं भस्म हो जाऊँगी 

मगर इसके भीतर भी मैं

तिलमिलाती ही रह जाऊँगी।


क्योंकि न लौटेगा कोई राम कभी

लेकर वो धैर्य का स्वर्ण मृग

न ही मैं कभी 

किसी चंचल अभिलाषा के रावण से

छली जाऊँगी।


हूँ मैं ऐसी सिया जो

अपनी ही बनाई 

लक्ष्मण-रेखा के भीतर

अपहरण कर ली जाऊँगी।