Thursday, April 29, 2010

जिंदगी क्या क्या लायी

खर्च कर सुख की पोटली,
जिंदगी  दुखों का सामान,
घर ले आई,

जिसकी एक चुभन  से,
बिखर जाता है मन पारे सा ,
जिंदगी वो दुःख का मेहमान ,
घर ले आई,

थका थका था तन,
अब चुका  सा रहेगा  मन,
जिंदगी  नया ये फरमान,
घर ले आई ,

अपने ही दुखों से ,
पूरा नहीं था मन आँगन,
दूसरों के दर्द भी अब यह,
उधार ले आई,

और फिर कोई भाप न ले ,
रोई  हुई आँखों के किनारे,
मेरे रिसते गम छुपाने के लिए,
यह स्याह काजल का ,
पूरा बाज़ार घर ले आई,

जब लगा असहनीय पीड़ा का चक्र तोड़,
रोक दूं सांसों   की आती जाती चुभन,
तभी जिंदगी,
 जीने के नए से बहाने ,
 दो चार घर ले आई.

Monday, April 26, 2010

यह कुछ एहसास....




यह कुछ एहसास 






यह कुछ एहसास 
हों जैसे कोई 
दीवार पे लटकी हुई तस्वीर।

सिर्फ तेज हवा के झोंके से
थरथराते  हों जैसे 
यह कुछ एहसास।

डगमगाते हुए,
जिंदगी की कील से लटके
मन की दीवार पर
अनगिनत निशान छोड़ जाते 
यह कुछ एहसास।


जिन एहसासों का अस्तित्व 
सिर्फ तेज़  हवा तक सीमित हैं ,
दिल की दीवार पर सुशोभित,
यह कुछ एहसास ..


मेरा एहम हैं,
या मेरी बदली सोच
मन की बाँधी गाँठ हैं 
या कुछ गहरी पहुँची चोट
 मगर हैं यह बस कुछ एहसास।


संवेदनाओं के भूकंप से
जब कभी हिलती हैं
सोच की दीवारें
वहीं  कील पर लटके 
कुछ नए निशान छोड़ जातेहैं 
यह कुछ  एहसास।