Saturday, April 18, 2009

एक पृथक मैं भी हूँ...

मृत पेड़ पर हरियाती हुई बेल हूँ मैं,
अंधेरे में टिमटिमाती हुई लौ भी हूँ,
थक कर चूर हुए उन हजारों मुसाफिरों में,
एक पृथक मैं भी हूँ....

चल रही हूँ मैं इसलिए नहीं की मुझ मैं सहास है,
लड़ रही हूँ मगर यह उत्साह की लड़ाई नहीं है,
निरंतर चलायमान है मेरा संघर्ष क्योंकि,
पलट कर लौटने के लिए कोई राह ही नहीं है.....

प्रतिभा की कमी किसी मैं नहीं होती ,
ना उसे कोई मिटा सकता है,
मगर वक्त के कठिन थपेडे इन्हे दबा देते हैं,
कुछ कर गुजरने का जस्बा ही मिटा देते हैं...

चींटी की तरह मैं भी बार बार गिरती हूँ पहाड़ से,
फिर चल पड़ती हूँ उसी चोटी को छूने,
क्यों कर रही हूँ ऐसा यह जानती नहीं,
शायद मंजिल तक जाने वाली कोई सरल राह ही नहीं,
और मंजिल भी क्या है यह आभास ही नहीं .....

सब कुछ वैसा ही है,
वही संघर्ष वही लड़ाई है,
मगर आपकी प्रितिभावान निधि,
वहीँ कहीं छूट आई है.....

दुनिया के लिए मिसाल बनूँ,
यह चाह ही कहाँ है,
जब किश्त किश्त में मिल रही है जिंदगी,
तो उस में सपनो की जगह ही कहाँ हैं......