मन को सिया बना कर
खींची मस्तिष्क ने एक लक्ष्मण रेखा
और जब जब अभिलाषा के रावन ने
खटखटाया ह्रदय का द्वार
तो मैंने इस रेखा को दहकते देखा।
जानती थी लांघ कर यह रेखा
मैं भस्म हो जाऊँगी
मगर इसके भीतर भी मैं
तिलमिलाती ही रह जाऊँगी।
क्योंकि न लौटेगा कोई राम कभी
लेकर वो धैर्य का स्वर्ण मृग
न ही मैं कभी
किसी चंचल अभिलाषा के रावण से
छली जाऊँगी।
हूँ मैं ऐसी सिया जो
अपनी ही बनाई
लक्ष्मण-रेखा के भीतर
अपहरण कर ली जाऊँगी।
अपने भावो को बहुत सुंदरता से तराश कर अमूल्य रचना का रूप दिया है.
ReplyDeleteजय हिंद जय हिंदी राष्ट्र भाषा
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