मन बन गया वृन्दावन ,
आंखें गोकुल की गालीयाँ,
राधा सी मैं हुई बावरी,
जब से गया मेरा कन्हीया,
कान्हा कान्हा पुँकार रही हूँ,
इन गोकुल की गलीयों में,
केशव बहुत सताया मुझको,
तेरी इन चंचल अंखीयों ने,
सब से है तू करे ठिठोली,
मुझसे ही न बोले है,
इतना तो बेपीर नहीं ,
फिर पीर ह्रदय की क्यों न जाने है,
विह्वल तेरे बिरह में कान्हा,
कुछ ऐसी तेरी राधे है,
शूलों से चुभते उसे ,
सखियों के उल्हानें हैं,
और तेरी देरी के भी तो ,
सूझे न इसे कोई बहाने हैं,
अब और देर न करना ,
सुन लो मेरे कान्हा तुम,
वरना हो जायेगी अब,
तेरी यह राधा गुम.
acchi kavita !
ReplyDeleteविह्वल तेरे बिरह में कान्हा,
ReplyDeleteकुछ ऐसी तेरी राधे है,
शूलों से चुभते उसे ,
सखियों के उल्हानें हैं,
और तेरी देरी के भी तो ,
सूझे न इसे कोई बहाने
bus nidhi ji ab mai aap ka kayal hoo gaya bhavnao ki itni sunder abhivyakti natmastak hun
bdhayi swikaar kare
aur mere blog par bhi aaye
अच्छी कविता -- सुन्दर भाव
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