हूक सी उठती है सीने में,
कुछ खोने का अहसास तड़पाता है,
मन बार बार फिर,
बचपन में लौट जाता है,
वो नानी का लाड़,
वो ढेर सारा दुलार,
छूट गया था सब एक दशक पहले,
पर खोया वो सब आज पहली बार...
मेरी नन्ही हथेली पर मेहंदी से वो ,
मोर और चिड़िया बनातीं थीं,
माटी के खिलौनों को गैस पे पकाती थीं,
टौफी के प्लास्टिक की गुड़िया बना,
उस की कहानी सुनाती थीं,
माटी से सने हाथ पैर,
बेसन से रगड़ धुलाती थीं,
कभी नानी तो कभी ,
माँ सा लाड़ जताती थीं,
हर अक्टूबर मैं करती थी यह इंतज़ार
नानी ने बुना होगा मेरे लिए ,
कौन से रंग का स्वेटर इस बार,
और कड़कती ठंड में फिर,
वो करारी सी आलू की टिक्की बनायेंगी,
छोटी सी प्लेट में रख फू -फू कर खिलायेंगी,
मगर अब ना कभी आयेगी ,
वो आलू के पराँठों की महक,
न उठेगी तवे पे वो टिक्की की भाप,
रहेगा होठों से चिपका मगर,
उस स्नेह का यह अनूठा सा सवाद,
कहां छू पाउँगी अब वो रुई सी ठोड़ी उनकी,
ना फूंक में उड़ा पाऊँगी कभी ,
फिर वो चाँदी से चमकते बाल,
ना िछप के खोल पाउँगी ,
उनके साड़ी के पल्लू की वो गाँठ,
ना जूस वाले के अाते ही,
खनकेगी वो सिक्कों की आवाज़,
अब उनका स्नेह एक अहसास बन रह जाएगा,
कभी फाँस सा चुभेगा सीने में,
कभी अासूं सा टपक जाएगा,
अपने बच्चों को ,
अपनी नानी की कहानी सुनाऊँगी ,
उनकी ममतामयी छवि मैं,
अपने ही अंदर कहीं बनाउंगी,
इस प्रयास में शायद
वो ख़ालीपन कुछ भर पाउँगी !